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‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से क्या है फायदा और नुकसान? बारीकी से समझिए हर पहलू

 नई दिल्ली

'वन नेशन वन इलेक्शन' की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। सरकार ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों को एक साथ कराए जाने के प्रस्ताव का अध्ययन करने के लिए पूर्व राष्ट्रपित रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक पैनल का गठन किया है। कोविंद का पैनल लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं और तंत्र का पता लगाएगा। हालांकि, यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि भारत में 1976 तक लोकसभा और विधानसभा एक साथ होते रहे थे। सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग इस सिलसिले में पहले ही अपनी शिफारिश कर चुका है।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और 2015 से 2019 तक नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक भी साल ऐसा नहीं गया है जब किसी राज्य विधानसभा या लोकसभा के लिए चुनाव न हुआ हो। रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि यही स्थिति आगे भी बनी रहने की भी संभावना है। इस स्थिति के कारण बड़े पैमाने पर धन का खर्च के साथ-साथ सुरक्षा बलों और जनशक्ति आदि की लंबे समय तक तैनाती होती है। ऐसे में सवाल लाजमी है यहां वन नेशन वन इलेक्शन क्यों जरूरी हो जाता है, क्योंकि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी धन के साथ-साथ सुरक्षा व्यवस्था अन्य जरूरी कामों में अपना ध्यान लगा सकती है।

बिबेक देबरॉय ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है कि अलग-अलग वक्त पर चुनाव कराने से शासन के स्तर पर क्या-क्या परेशानियां आ सकती हैं। रिपोर्ट में उन्होंने कि शासन के बड़े क्षेत्र में प्रतिकूल प्रभाव मूर्त और अमूर्त दोनों है। देबरॉय ने कहा, "स्पष्ट रूप से बार-बार आदर्श आचार संहिता लगाए जाने से विकासात्मक परियोजनाएं और अन्य सरकारी गतिविधियां निलंबित हो जाती हैं… बार-बार चुनावों का बड़ा अमूर्त प्रभाव यह होता है कि सरकारें और राजनीतिक दल लगातार प्रचार मोड में रहते हैं।"

Dinesh Kumar Purwar

Editor, Pramodan News

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