बिहार में तेजस्वी यादव की परेशानी के 5 कारणों पर गौर करिए

पटना
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों करीब करीब आ चुके हैं. बिहार की जनता ने तेजस्वी यादव और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) को बड़ा झटका दिया है. 14 नवंबर को सुबह 10.45 पर जो रुझान दिख रहा है उसमे महागठबंधन (आरजेडी-कांग्रेस-वाम) 54 सीटों पर सिमटता दिख रहा, जबकि एनडीए (बीजेपी-जेडीयू) 185 सीटों पर मजबूत दिख रही है. ताजा रुझानों में तेजस्वी खुद अपनी सीट पर पीछे चल रहे हैं. जाहिर है कि बिहार की जनता ने महागठबंधन और तेजस्वी यादव को हराया नहीं है बल्कि एक तरह से नकार दिया है. आखिर जो पार्टी और जो नेता चुनाव के दिन तक बराबरी का टक्कर देने का दावा कर रहा था वो इस तरह कैसे धराशाई हो गया. आइये देखते हैं इसके पीछे क्या कारण रहे?
52 यादव उम्मीदवारों को टिकट देना गलत साबित हुआ
इस हार की एक प्रमुख वजह आरजेडी द्वारा 52 यादव उम्मीदवारों को टिकट देना साबित हुआ. यह फैसला न केवल जातिवादी छवि को मजबूत कर गया, बल्कि गैर-यादव वोट बैंक को दूर भगा दिया. बिहार की राजनीति जाति पर टिकी है, जहां यादव (14% आबादी) आरजेडी का कोर वोट बैंक है, लेकिन 52 टिकट यादवों को देने से पब्लिक को यादव राज की गंध आने लगी . जिसके चलते अगड़े और अति पिछड़े महागठबंधन से दूर हो गए.
आरजेडी ने कुल 144 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें 52 यादव थे जो कुल प्रत्याशियों का लगभग 36% था. यह संख्या 2020 के 40 से बढ़ी, जो तेजस्वी की 'यादव एकीकरण' रणनीति का हिस्सा थी. महागठबंधन में सीट शेयरिंग के तहत आरजेडी को 143 सीटें मिलीं थीं. हो सकता है कि आरजेडी को यादव सीटों पर अच्छी सफलता मिल जाए पर ओवरऑल यह नुकसान कर गया.
बीजेपी ने प्रचार में 'आरजेडी का यादव राज' का नैरेटिव चलाया, जो शहरी और मध्यम वर्ग में गूंजा. तेजस्वी ने यदि 30-35 यादव टिकटों तक सीमित रखा होता तो कुर्मी-कोइरी वोटों का हिस्सा 10-15% बढ़ सकता था.जैसा अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनावों में किया था. उन्होंने केवल 5 यादव प्रत्याशियो को मैदान में उतारा. बाकी पिछड़ी जातियों और सवर्णों को वोट देकर उन्हें अपना बना लिया.
सहयोगी पार्टियों को भाव न देना
तेजस्वी यादव की रणनीति में सबसे बड़ी चूक अपने सहयोगियों कांग्रेस, वाम दलों और छोटी पार्टियों के साथ 'बराबर भाव' न रखना साबित हुआ. सीट शेयरिंग विवादों ने गठबंधन को कमजोर किया, और तेजस्वी के 'आरजेडी सेंट्रिक' अप्रोच ने विपक्ष को बांट दिया. यह न केवल वोट ट्रांसफर फेल कर गया, बल्कि एनडीए को 'एकजुट' दिखाने का मौका दिया.
कांग्रेस ने 'गारंटी' मेनिफेस्टो पर जोर दिया, लेकिन तेजस्वी ने 'नौकरी देंगे' को प्राथमिकता दी, जो सहयोगियों को चुभा. इतना ही नहीं तेजस्वी ने महागठबंधन के घोषणापत्र का नाम भी तेजस्वी प्रण रखकर सबको पीछे कर दिया. तेजस्वी ने प्रचार में सहयोगियों को बैकसीट पर रखा. रैलियों में राहुल गांधी की तस्वीरें कम, तेजस्वी की ज्यादा दिखीं.
तेजस्वी का अपने वादों का ब्लू प्रिंट नहीं दे पाना
तेजस्वी की सबसे बड़ी चूक यह रही कि वो वादे तो बहुत कर दिए पर उसका ठोस ब्लूप्रिंट नहीं दे पाए. हर घर को एक सरकारी नौकरी, पेंशन, महिला सशक्तिकरण और शराबबंदी की समीक्षा जैसे वादे तो किए, लेकिन फंडिंग, कार्यान्वयन योजना या समयबद्ध ब्लूप्रिंट के अभाव ने वोटरों में अविश्वास पैदा किया. हर घर को सरकारी नौकरी पर वो खुद जवाब नहीं दे सके. हर रोज कहते रहे कि बस अगले 2 दिन में ब्लू प्रिंट आ जाएगा. पर चुनाव बीत जाने के बाद भी वो दिन नहीं आया.
महागठबंधन का मुस्लिमपरस्त छवि बन जाना
महागठबंधन की 'मुस्लिमपरस्त' छवि तेजस्वी यादव की हार का बड़ा कारण बनी. मुस्लिम बहुल सीटों पर तो आरजेडी या महागठबंधन के अन्य सहयोगियों की जीत संभव होगी पर पूरे प्रदेश में इसका नुकसान हुआ. खुद यादव जाति के वोट कई जगहों पर आरजेडी को नहीं मिले. सत्ता मिलने पर बिहार में वक्फ बिल नहीं लागू करने वादा जिस तरह तेजस्वी ने किया वह बहुत से यादव बंधुओं को भी पसंद नहीं आया. बीजेपी ने लालू यादव के संसद में वक्फ बिल के अत्याचार के खिलाफ दिए भाषण को खूब वायरल कराया जिसका फायदा उसे मिला.
अपने पिता लालू प्रसाद को लेकर कन्फ्यूज रहे तेजस्वी
तेजस्वी ने लालू की विरासत को अपनाया, लेकिन पोस्टर्स में उनकी तस्वीर को छोटा कर 'नई पीढ़ी' को क्या दिखाने की कोशिश की यह समझ में नहीं आया. यह दोहरी नीति उल्टी पड़ गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोपालगंज रैली में कहा, तेजस्वी लालू के पाप छिपा रहे हैं.
तेजस्वी ने लालू के सामाजिक न्याय एजेंडे को अपनाया, लेकिन 'जंगल राज' छवि से डरकर दूरी बनाई. पोस्टर्स में लालू को कोने में ठूंसना उनका अपमान ज्यादा था.




