मध्य प्रदेश में क्यों नहीं पड़ा एंटी इनकंबेंसी का असर ?
नईदिल्ली
मध्य प्रदेश, राजस्थान समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं. बीजेपी ने मध्य प्रदेश की सत्ता में वापसी की है तो राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में एंटी इनकंबेंसी की आंधी में कांग्रेस, बीआरएस और एमएनएफ के हाथ से सत्ता निकल गई है. ऐसा नहीं है कि मध्य प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी जैसे माहौल की चर्चाएं नहीं थीं लेकिन जब नतीजे आए तो कयासबाजी कोरी साबित हुईं. बीजेपी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया है.
बताते चलें कि मध्य प्रदेश में 18 साल से बीजेपी की सरकार है. सिर्फ साल 2018 से मार्च 2020 तक कांग्रेस सत्ता में रही. शिवराज चार बार से सीएम बन रहे हैं. लेकिन, इस बार उनके सियासी भविष्य को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं. चूंकि बीजेपी ने पहली बार मध्य प्रदेश समेत किसी भी राज्य में सीएम फेस घोषित नहीं किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा आगे किया गया. पीएम और शीर्ष नेतृत्व ने खुद चुनावी अभियान की बागडोर संभाली. इसका असर जमीन पर दिखा और बीजेपी की जीत ने हर किसी को चौंका दिया है.
मध्य प्रदेश में क्यों हावी नहीं हो पाई सत्ता विरोधी लहर?
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पांचों राज्यों में बीजेपी एक खास रणनीति के साथ मैदान में उतरी थी. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार को घेरने का फुल प्रूफ प्लान था तो मध्य प्रदेश में सत्ता बरकरार रखने की सबसे बड़ी चुनौती थी. चुनाव से कुछ महीने पहले ही ग्राउंड से ऐसी खबरें आ रही थीं कि राज्य में 18 साल से बीजेपी की सरकार है और अब सत्ता विरोधी लहर हावी हो सकती है. संगठन ने राजनीतिक हालात भांपे और कांग्रेस को हमला करने का कोई मौका नहीं दिया. यहां तक कि चुनाव में शिवराज जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता को सीएम फेस घोषित किए बिना मैदान में उतरने का बड़ा और कठिन फैसला लिया.
'अगर परिणाम पक्ष में नहीं आते तो हाईकमान की होती किरकिरी'
जानकार कहते हैं कि पीएम मोदी और शीर्ष नेतृत्व के लिए यह फैसला लेना कठिन था. लेकिन, बीजेपी ने रिस्क लिया. अगर बीजेपी के पक्ष में परिणाम नहीं आते तो एनालिसिस यही किया जाता कि बिना सीएम फेस के चुनावी मैदान में जाने से पार्टी को नुकसान पहुंचा है. अब जब दांव सफल हुआ है तो इसके पीछे संगठन की अचूक रणनीति से इंकार नहीं किया जा सकता है. हालांकि, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सॉफ्ट छवि, सहज स्वभाव और जनता से सीधा कनेक्ट होने से फायदा मिलने से इंकार नहीं किया जा सकता है.
सवाल यह भी उठ रहे हैं कि बीजेपी के 18 साल की सत्ता के बाद भी आखिर किस वजह से एंटी इनकंबेंसी का असर नहीं दिखा? वहीं, बीजेपी से जुड़े लोग कहते हैं कि एंटी इनकंबेंसी मैनेज करने के लिए सरकार और संगठन ने एक रणनीति के तहत काम किया था.
मेरा बूथ सबसे मजबूत यानी बूथ और पन्ना लेवल पर काम
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जून के आखिरी सप्ताह में खुद भोपाल पहुंचे और कार्यकर्ताओं को संबोधित किया. उन्होंने घर-घर तक जाने की अपील की. लोगों को पार्टी से जोड़ने का मंत्र भी दिया. बीजेपी ने अधिकतम सीटें हासिल करने के लिए इस सफल बूथ मॉडल को अपनाया और गेमचेंजर साबित हुई. यह भी जानना जरूरी है कि पीएम मोदी ने साल 1998 में मध्य प्रदेश में बूथ विस्तारक कार्यक्रम की शुरुआत की थी. उसके बाद बीजेपी ने एमपी को अपना सबसे मजबूत किला बना लिया. हर बूथ कमेटी के कार्यकर्ता को दस परिवारों के साथ संपर्क करने का टास्क दिया गया. उनके साथ करीबी बढ़ाने और मतदान के दिन उनका वोट बीजेपी को दिलाने की जिम्मेदारी दी गई. केंद्र सरकार के कामकाज का ब्योरा दिया गया. लोगों को यह समझाया गया कि एक चूक से तंत्र पर भ्रष्टाचारी फिर से हावी हो सकते हैं.
आरएसएस के कार्यकर्ताओं का प्रयास
बूथ को मजबूत करने पर बीजेपी ने पूरी ताकत तो झोंकी ही है. इसके साथ सभी बूथों पर एक-एक कमेटी का गठन किया गया है, इसमें अध्यक्ष, बूथ एजेंट और महामंत्री के अलावा दस सदस्यों की टीम शामिल की गई. आखिरी समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़े कार्यकर्ता भी मैदान में उतरे और लोगों तक सीधे पहुंच बनाई. घर-घर संपर्क किया और राष्ट्र हित में वोट करने की अपील की. इसका बड़ा असर बीजेपी के पक्ष में देखने को मिला. बूथ कमेटी के नीचे पन्ना कमेटी, अर्द्ध पन्ना कमेटी बनाई गई है. बताते हैं कि 2018 के चुनाव में संघ ने सीधा हस्तक्षेप नहीं किया था, जिसकी वजह से बीजेपी को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था. इस बार चुनाव में संघ के वरिष्ठों ने लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर रणनीति बनाई.
कई सीएम चेहरों का ऑप्शन दिया
इस बार चुनाव में बीजेपी ने सीएम फेस घोषित नहीं किया. यही रणनीति मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनाई गई. चुनाव की घोषणा से तीन महीने पहले ही हारी हुई सीटों पर उम्मीदवार उतारे गए. फिर कमजोर सीटों पर दिग्गजों को मैदान में उतारने का निर्णय लिया. तीन केंद्रीय मंत्री समेत पांच सांसद और राष्ट्रीय महासचिव को उम्मीदवार बनाया. इससे बड़ा मैसेज यह गया कि बीजेपी सरकार आने पर प्रदेश में बदलाव भी कर सकती है. शिवराज के अलावा प्रदेश के अन्य बड़े नेता भी सीएम के संभावित चेहरे के रूप में गिने गए. इसका फायदा यह हुआ कि स्थानीय और आसपास की सीटों पर एक माहौल बना और उसका सीधा फायदा अन्य उम्मीदवारों को भी मिला. सिर्फ एक केंद्रीय मंत्री और एक सांसद चुनाव हारे.
सिर्फ पीएम मोदी चेहरा बने
पूरे चुनाव प्रचार में सिर्फ पीएम मोदी चेहरा रहे. चुनाव से छह महीने पहले उन्होंने राज्य में दौरे शुरू कर दिए. उन्होंने बैक टू बैक रैलियां कीं और रोड शो किए. तैयारियों का फीडबैक लिया. संगठन को जरूरी दिशा-निर्देश भी मिलते रहे. जानकार कहते हैं कि ज्यादातर जगहों पर स्थानीय चेहरों का विरोध रहता है या लोगों में नाराजगी देखने को मिलती है. ऐसे में बीजेपी ने उन चेहरों को पूरे प्रचार में आगे नहीं किया. सिर्फ पीएम मोदी के नाम पर वोट मांगे गए. वोटर्स को मोदी और शिवराज सरकार के काम गिनाए गए. केंद्र-राज्य सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों तक पहुंचे और उनसे सीधा संवाद किया.
आदिवासी पर फोकस रखा, मिला जबरदस्त लाभ
बीजेपी ने एक साल पहले ही चुनावी तैयारियां शुरू कर दी थीं. राज्य में बड़ी संख्या में आदिवासी वोटर्स हैं. आदिवासी बाहुल्य 47 सीटें रिजर्व हैं. इस बार बीजेपी ने 24 सीटों पर जीत हासिल की है. पिछले चुनाव में बीजेपी सिर्फ 16 सीटें ही जीत पाई थी. इस बार पार्टी ने खास प्लान पर काम किया. आदिवासी वोटरों को फोकस करते हुए एक साल तक उनके लिए योजनाएं चलाई गईं. मध्य प्रदेश में 21% आबादी आदिवासियों की है. देशभर में बिरसा मुंडा जयंती मनाने का ऐलान किया गया. भोपाल में हबीबगंज स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति के नाम किया गया. टंट्या भील चौराहा बनाया गया. आदिवासी पंचायतों में पेसा एक्ट लागू करने जैसी योजनाएं लागू की गईं. जबलपुर में आदिवासी राजा शंकर शाह और उनके बेटे कुंवर रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस कार्यक्रम में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलान किया कि यादें संजोने के लिए देशभर में म्यूजियम बनाए जाएंगे. इसके इतर, कांग्रेस आदिवासियों को अपना परंपरागत वोट मानकर भरोसे में बैठी रही. कांग्रेस की इस वर्ग में सक्रियता बहुत कम देखी गई.
लाड़ली बहना वाला दांव चला
आधी आबादी को साधने के लिए बीजेपी ने इस चुनाव में बड़ा दांव चला. मध्य प्रदेश में वैसे तो शिवराज सरकार महिलाओं-बेटियों को लेकर कई योजनाएं संचालित कर रही है, लेकिन इस बार लाड़ली बहना योजना ने खूब सुर्खियां बटोरीं. बीजेपी पर काउंटर अटैक के लिए कांग्रेस ने भी सत्ता में आने पर हर महीने 1500 रुपए देने का वादा किया. लेकिन, महिलाओं ने बीजेपी की डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम को पसंद किया. ये योजना चुनाव से काफी पहले शुरू कर दी गई थी. चुनाव से ठीक पहले धनतेरस के दिन कैश ट्रांसफर किया गया. राज्य की एक करोड़ से ज्यादा महिलाओं को योजना का लाभ मिल रहा है. अभी 1250 रुपए महीना दिया जा रहा है. आगे 3000 हजार रुपए दिए जाने का वादा किया गया है.इस योजना के तहत हर महीने की 10 तारीख तक लाभार्थियों के अकाउंट में डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर (DBT) के जरिए पैसे भेजे जाते हैं.
वोटिंग परसेंटेज बढ़ाने पर काम
बीजेपी ने 2003 के बाद राज्य में सबसे ज्यादा 164 सीटें जीती हैं. इसके पीछे माइक्रो मैनेजमेंट प्लान काम आया है. पार्टी ने कमजोर बूथों पर माइक्रो मैनेजमेंट सिस्टम तैयार किया. वोटिंग परसेंटेज बढ़ाने पर जोर दिया. उन बूथों को चिह्नित किया गया, जहां कम अंतर से बीजेपी उम्मीदवार हारते या जीतते हैं. ऐसे बूथों पर खास काम किया. इस चुनाव में बीजेपी ने 101 सीटों पर 51 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किए हैं. पार्टी को कुल 48.55 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि 2018 के चुनाव में 41.02 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे. इस बार 7.53 प्रतिशत ज्यादा वोट हासिल किए हैं. यही बढ़ा हुआ वोटिंग परसेंटेज गेमचेंजर साबित हुआ. बीजेपी से जुड़े लोग कहते हैं कि बीजेपी ने सीटें बढ़ाने के साथ ही हर बूथ पर अपना वोट प्रतिशत 51 फीसदी तक ले जाने का टारगेट रखा था. करीब एक साल से इसके लिए कार्य योजना बनाकर मोर्चा और संगठन जुटे हुए थे.
ग्राउंड से लिया फीडबैक, फिर प्लान पर किया काम
बीजेपी ने चुनाव से पहले और प्रचार अभियान के दरम्यान लगातार ग्राउंड से फीडबैक लिया. लोगों के मन की बात समझी और अपने चुनावी रणनीति में समय-समय पर बदलाव किया. फीडबैके आधार पर लगातार कोर्स करेक्शन किया. वहीं, कांग्रेस इसमें असफल रही. कांग्रेस को करीब से जानने वाले लोग कहते हैं कि पार्टी वोटर्स का मूड भांपने में पूरी तरफ असफल रही है. कांग्रेस को लग रहा था कि प्रदेश में 18 साल से शिवराज सरकार है. लोगों में नाराजगी है. एंटी इनकंबेंसी का फायदा मिलेगा. इसलिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है. जनता हमें विकल्प के रूप में देख रही है. लेकिन, यह सोच ही पार्टी को भारी पड़ी. बीजेपी ने हर मुद्दे का काउंटर अटैक खोजा और अपनी छवि चमकाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. बीजेपी ने उन सीटों पर 100 दिन पहले ही टिकट घोषित कर दिए थे, जिन पर उसे लंबे समय से हार मिल रही थी. इससे उसे फर्स्ट मूवर एडवांटेज मिला. बीजेपी यहां बहुत-सी सीटें जीतने में सफल रही.
राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना में क्यों नहीं हुई एंटी इनकंबेंसी मैनेज
2018 के चुनाव में कांग्रेस ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ में बीजेपी से सत्ता छीनी थी और बंपर जीत हासिल की थी. तेलंगाना में के. चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली बीआरएस की सरकार बनी थी. केसीआर की 9 साल से तेलंगाना में सरकार थी. लेकिन, 2023 के नतीजे आए तो कांग्रेस से राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकार छिन गई. तेलंगाना में केसीआर को भी मात मिली. यहां कांग्रेस ने पहली बार सरकार बना ली. अब इन तीनों राज्यों में सत्तारूढ़ दलों के हारने के कारण खोजे जाने लगे हैं. अब तक यही बात सामने आई है कि इन तीनों राज्यों में एंटी इनकंबेंसी का माहौल था, लेकिन, सत्तारूढ़ लोगों का मिजाज भांपने और नाराजगी दूर करने के कारण नहीं तलाश पाए. नतीजन, कांग्रेस को दो राज्यों में सरकार गंवानी पड़ी. हालांकि, उसे तेलंगाना में सरकार बनाने का मौका मिल गया है. वहां केसीआर की पार्टी 39 सीटों पर सिमट गई है.
राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में हार के क्या कारण…
– इस चुनाव में बीजेपी की तरफ से शीर्ष नेतृत्व फ्रंट फुट पर था. पूरे प्रचार अभियान से लेकर लोकल तक संगठन के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा रहा था. वहीं, कांग्रेस में इसके ठीक उलट तस्वीर नजर आई. कांग्रेस में हाईकमान को इग्नोर कर तीनों राज्यों में लोकल लीडरशिप की ही चली. टिकट बंटवारे से लेकर घोषणा पत्र तैयार करने तक में स्थानीय नेतृत्व को आगे देखा गया.
– हाल ही में I.N.D.I.A अलायंस तैयार किया गया. लेकिन विधानसभा चुनाव में इसका कोई वजूद नहीं दिखा. अलायंस में शामिल दलों ने अपने उम्मीदवार उतारे और यह कांग्रेस के लिए मुसीबत बना. मध्य प्रदेश में अलांयस को लेकर सपा आगे आई, लेकिन सीट शेयरिंग पर बात नहीं बनी और सपा ने 74 सीटों पर कैंडिडेट उतार दिए. इतना ही नहीं, अलायंस की पहली रैली भोपाल में प्रस्तावित थी, लेकिन कहते हैं कि कमलनाथ ने इस रैली में भी अड़ंगा लगा दिया. कांग्रेस हाईकमान ने चुनाव रणनीतिकार की टीम की सेवा लेने के लिए कहा तो कमलनाथ ने इसके लिए भी मना कर दिया.
– कहते हैं कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने शुरुआत में कांग्रेस को बढ़त दिलाई लेकिन कैंडिडेट घोषित होने के बाद विवाद बढ़ा और मनमुटाव सामने आने लगा. अलग-अलग गुटों में भोपाल से लेकर स्थानीय स्तर तक विरोध-प्रदर्शन हुए, उससे वोटर के बीच टकराव और फूट का मैसेज गया.
– कांग्रेस ने मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए पूरी ताकत लगाई. जबकि बीजेपी ने काउंटर पोलराइजेशन पर फोकस रखा. जिन सीटों पर मुस्लिम वोटर की संख्या ज्यादा थी, वहां बीजेपी जबर्दस्त तरीके से काउंटर पोलराजेशन करने में सफल रही.
– राजस्थान में अशोक गहलोत चाहते थे कि पार्टी चुनाव से दो महीने पहले उम्मीदवारों का ऐलान करे. गहलोत ने खुद कहा था कि चुनाव के वक्त उम्मीदवार दिल्ली-जयपुर के चक्कर लगाते रहते हैं, जिससे उनका चुनाव प्रचार प्रभावित हो जाता है. वे लोगों तक नहीं पहुंच पाते हैं और जनता की नाराजगी बढ़ जाती है. लेकिन, इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया और नामांकन के आखिरी समय तक टिकट फाइनल किए गए.
– राजस्थान में कांग्रेस विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ एंट्री इनकंबेंसी का माहौल था. इसके बावजूद पार्टी ने टिकट दिया और मैदान में उतारा. इसका असर परिणामों में भी देखने को मिला. कांग्रेस से सीएम समेत 26 मंत्री चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन इनमें से 17 हार गए. 98 विधायकों को रिपीट किया गया था, लेकिन सिर्फ 66 ही चुनाव जीत सके.
-राजस्थान में बीजेपी ने 115 सीटें जीतीं. कुल 42 सीटों का फायदा हुआ. कांग्रेस 69 सीटों पर सिमट गई. 30 सीटों का नुकसान पहुंचा.
– छत्तीसगढ़ में आदिवासी वोटर ने सत्ता का मिजाज बदल दिया. 2018 के चुनाव में बस्तर समेत अन्य आदिवासी बाहुल्य सीटों पर कांग्रेस ने जबरदस्त जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार प्रदर्शन रिपीट नहीं कर पाई. स्थानीय नेतृत्व को इस आदिवासी बाहुल्य राज्य में भी कांग्रेस हाईकमान को इग्नोर करना भारी पड़ा.राजस्थान, मध्य प्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के पास ही पूरे चुनावी अभियान की कमान थी. राजस्थान की तरह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपनी योजनाओं का भी ठीक से प्रचार नहीं कर पाई.
– कांग्रेस की हार के पीछे एक बड़ा फैक्टर गुटबाजी भी रहा. मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच मंच पर नोकझोंक देखी गई. हालांकि, बाद में डैमेज कंट्रोल की कोशिश की गई. राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट की खींचतान ने कांग्रेस को डैमेज किया. छत्तीसगढ़ में भी चुनाव से कुछ महीने पहले तक सीएम भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव दिल्ली की दौड़ लगाते रहे. दोनों नेताओं में सीएम पद को लेकर अंदरुनी विवाद देखा गया.
– तीनों ही राज्यों में अंतर्कलह का भी मतदाताओं के बीच गलत संदेश गया और कांग्रेस को चुनाव नतीजों में इसका नुकसान उठाना पड़ा. इसके अलावा, पार्टी को वोटों के ध्रुवीकरण का भारी नुकसान हुआ.
– तेलंगाना में चुनावी अभियान की कमान खुद हाईकमान ने संभाली. वहां कर्नाटक के सीएम, डिप्टी सीएम को लगाया गया. खुद संगठन के कार्यों पर नजर रखी. सांसदों को भी टिकट दिया. इसका फायदा कांग्रेस को मिला है.